लोकसभा चुनाव 2024: मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी कहाँ है?

देश की मौजूदा OBC केंद्रित राजनीति मुसलमानों के लिए काल बन चुकी है!

ज्यादा तनाव मत लीजिये हालिया राजनीतिक परिदृश्य में यही कटु सत्य है।

मुसलमानों के कंधों से अभी भाजपा (BJP) को हराने के ठेके का बोझ कम नहीं हुआ था कि सभी राजनीतिक पार्टियों की OBC केंद्रित राजनीति ने मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी खत्म करने कसम खा रखी है।

उत्तर प्रदेश के तराई बेल्ट में मुस्लिम केंद्रित दो लोकसभा सीटें बहराइच और श्रावस्ती हैं। बहराइच (Bahraich) तो पहले से ही परिसीमन की वजह से मुस्लिम राजनीति से दूर हो चुकी है। आरक्षित सीट होने की वजह से यहां मुस्लिम उम्मीदवार का जीतना तो दूर चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी है।

वहीं श्रावस्ती (Shravasti) में सभी सेकुलर पार्टियां मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान से हमेशा दूर कर देती है। क्या 35% मुस्लिम मतदाता (Muslim Voters) होने के बावजूद भी मुस्लिम प्रत्याशी (Muslim Candidate) को चुनावी मैदान में उतारने से सिरे से इनकार कर देना सही है?

आप एक समय के लिए सोच कर देखिये अगर किसी लोकसभा सीट पर 35% यादव, कुशवाहा, ठाकुर या अन्य समुदाय की आबादी हो तो क्या वहां पर किसी दूसरे प्रत्याशी को चुनावी मैदान में उतारा जाएगा?

कतई नहीं! फौरन बवाल नहीं हो जायेगा। पार्टी बदल देनी की धमकी उन तमाम सेकुलर पार्टियों (Secular Parties) को घुटनों पर ला देगी जो भाजपा से लड़ने का दावा करती हैं। तो फिर मुस्लिम समुदाय के साथ ऐसा क्यों किया जाता है? लगता है मुसलमानों की राजनीतिक हकमारी में इन सेकुलर पार्टियों को खूब मजा आता है?

पूरे उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में मुस्लिम 35% से ज्यादा मुस्लिम मतदाता वाली गिनती की 13 सीटें हैं। जहां पर नैतिक तौर पर मुसलमानों का पहला राजनीतिक हक होता है मगर इसके बावजूद अधिकतर समय सेकुलर पार्टियां मुसलमानों को भाजपा को हराने के नाम का लॉलीपॉप दे कर उनके इस राजनीतिक हक से मेहरूम अर्थात वंचित कर देती हैं।

सबसे ज्यादा हैरानी तो तब होती है जब मुसलमान भी अपनी इस हकमारी पर बात करने की बजाये एकदम खामोश बैठ जाता है अथवा इसको अपने कुतर्कों से पार्टी के हक़ में जस्टिफाई करने लगता है। लोकतंत्र और भाजपा की दुहाई दे कर इस हकमारी को भी सही साबित किया जाता है।

जब तक आप अपने हक के लिए लड़ेंगे नहीं तो यह लोग तो इस मौके में बैठे ही हैं कि आपका हक हड़प लिया जाये। केवल राजनीतिक पिछड़ेपन का बहाना बना कर रोना धोना करने से कुछ नहीं होगा, कभी-कभी अपने हक को हासिल करने के लिए संघर्ष भी करना होता है और इस राजनीतिक पार्टियों को टेढ़ी ऑंखें भी दिखानी होती है।

अब कोई भी राजनीतिक तौर पर समझदार व्यक्ति ये समझाने का कष्ट करेगा कि आखिर क्यों 34% मुस्लिम मतदाता वाली मेरठ (Meerut) लोकसभा सीट, 40% मुस्लिम वोटर वाली मुज़फ्फरनगर (Muzaffarnagar) लोकसभा सीट, 41 फीसदी मुस्लिम मतदाता वाली बिजनौर (Bijnor) लोकसभा सीट, 47% मुस्लिम वोटर वाली मुरादाबाद (Moradabad) लोकसभा सीट और 35% मुस्लिम मतदाता वाली श्रावस्ती (Shravasti) लोकसभा सीट पर मुस्लिम समुदाय की उम्मीदवारी नहीं होनी चाहिए?

यूपी की दो मुस्लिम केंद्रित सीटें नगीना (Nagina) और बहराइच (Bahraich) तो पहले ही परिसीमन के नाम पर मुस्लिम राजनीति से विहीन हो चुकी है। जहां मुस्लिम उम्मीदवार का चुनाव जीतना तो दूर चुनाव लड़ने पर भी पाबन्दी है।

जिसकी जितनी आबादी उतनी भागीदारी का नारा सभी विपक्षी पार्टियों का केवल चुनावी जुमला है। हकीकत में इसका जमीनी सतह पर कोई उदहारण इन पार्टियों ने पेश नहीं किया है। उल्टा भाजपा के डर के नाम पर उस हिस्सेदारी को हड़पने का काम जरूर किया गया है।

बात चाहे आप बिहार में तेजस्वी यादव (Tejasvi Yadav) की करिये या यूपी में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की अथवा राष्ट्रीय राजनीती में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की सभी ने चुनावी मंचों से आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी की बात तो की है मगर टिकट बंटवारे में उनकी बातें मुकम्मल तौर पर झूठी साबित हो चुकी हैं।

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