जब भी मैं परिसीमन के मुद्दे पर मुखर हो कर लिखता हूँ तो एक बड़ी गिनती ये कह कर भ्रम फ़ैलाने की कोशिश करती है कि देखो ये व्यक्ति तो दलित और आदिवासी विरोधी है। इस आदमी को दलित आरक्षण से बहुत ज्यादा तकलीफ है।
मगर जब हकीकत की बात करेंगे तो मामला एक दम उल्टा है। मुझे लगता है कि एक पीड़ित समाज ही दूसरे पीड़ित समाज के दर्द को ज्यादा अच्छे से समझ सकता है। ऐसे में ऐसे सवाल उठाने वाले लोगों की मंशा पर सवाल उठना लाज़मी है।
जैसे दलित समाज को शोषण का शिकार होना पड़ा है बिलकुल वैसे ही मुस्लिम समुदाय को भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर हाशिये पर धकेला गया है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार तो मुसलमानों की देश में मौजूदा सूरते हाल दलितों से भी बदतर है।
राजनीतिक आरक्षण का सीधा का अर्थ ये है कि उस पिछड़े और शोषित समाज को मुख्यधारा की राजनीती में शामिल करने के लिए कुछ एक्स्ट्रा मौका दिया जाये ताकि समाज में बराबरी का माहौल पैदा हो सके।
अब अगर उस समाज की लोकसभा या विधानसभा सीट ऐसी जगह से आरक्षित हो जहां उस समाज की आबादी न के बराबर हो तो कैसे समझा जाये कि चुना जाने वाला नेता अपने समाज के लिए ईमानदार होगा?
ऐसे में ये क्यों न माना जाने कि वो व्यक्ति केवल कठपुतली की तरह होगा जो अपने उन वोटरों के प्रति ही ज्यादा ईमानदार होगा जिनके बहुसंख्यक वोटों की वजह से वो जीता होगा। सैंकड़ों मिसालें इस तथ्य को सच साबित करने के लिए काफी हैं।
परिसीमन के हिसाब से अगर सीटों की ही बात कर लूँ तो आपको ये मानना होगा कि नगीना में किसी भी प्रत्याशी को जीतने के लिए 47% मुस्लिम मतदाता का वोट हर हालत में चाहिए होगा। उनके बिना उसकी चुनावी जीत अधूरी ही रहेगी।
यहां पर एक चीज और ध्यान दे दीजिये कि इसी इलाके की दूसरी लोकसभा सीट बिजनौर जो मुस्लिम मतदाता बहुल सीट है वहां पर भी विपक्षी पार्टियां मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान में उतारने से कतराती है।
अब सोच कर देखिये कि एक तरफ तो नगीना की लोकसभा सीट परिसीमन में आरक्षित कर दी गयी है दूसरी तरफ बिजनौर में प्रत्याशी नहीं बनाना इस इलाके से मुस्लिम राजनीती को ख़त्म करने की एक साजिश तो नहीं है!
ऐसे ही झारखंड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में भी मुसलमानों की राजनीती के साथ परिसीमन के नाम पर धोखा दिया गया है। झारखंड की एक लोकसभा सीट है राजमहल। ये सीट आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है। इस सीट पर जहां मुस्लिम 34 फीसदी वोटर हैं वहीं आदिवासी समाज के वोटर 29 फीसदी ही है। मुसलमानों की ज्यादा गिनती के बावजूद इस सीट को ST के लिए आरक्षित किया गया है।
इसी प्रकार झारखंड की ही एक और लोकसभा सीट है रांची। इस सीट पर भी आदिवासी समाज के वोटर 29 फीसदी है मगर ये सीट आरक्षित न हो कर जनरल है। इस सीट पर मुस्लिम आबादी 15.5 % है।
अब आप खुद सोचिये कि अगर किसी सीट को परिसीमन में आरक्षित करने का पैमाना आबादी ही है तो फिर आखिर क्यों मुस्लिम मतदाता केंद्रित सीट को ही आरक्षित किया गया है जबकि दूसरी तरफ उतनी ही आबादी वाली रांची सीट को जनरल रहने दिया गया है।
कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश में भी किया गया है। 30 फीसदी से ज्यादा दलित वोटर वाली रायबरेली सीट को तो जनरल श्रेणी में रखा गया है मगर बहराइच जैसी 35% मुस्लिम मतदाता वाली सीट को परिसीमन में आरक्षित कर दिया गया है। सोचिये इस सीट पर दलित मतदाता केवल 15 फीसदी ही है, ऐसे में कोई भी प्रत्याशी चुनावी जीत हासिल करने के लिए मुस्लिम समाज का समर्थन जरूर लेना चाहेगा।
अब यहां आखिर क्यों ये सवाल नहीं उठेगा कि जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है उसे तो परिसीमन में आरक्षित कर दिया गया मगर दूसरी तरफ जहां दलित मतदाता ज्यादा और प्रभावशाली है उसको जनरल श्रेणी में ही रहने दिया गया है।
परिसीमन के नाम पर इस प्रकार सीटों का अन्यायपूर्ण बंटवारा जहाँ मुस्लिम राजनीती के लिए तो बेहद खतरनाक है ही वहीं दलितों की भी मुखर राजनीतिक आवाज के लिए बेहद चिंताजनक है।
मुझे लगता है मौजूदा समय में परिसीमन के मुद्दे पर खुल कर बात करने बेहद सख्त जरूरत है क्यूंकि अगर आज आवाज नहीं बुलंद की गयी तो वो दिन भी दूर नहीं जब मुसलमान समाज अपने एक एक विधायक सांसद के लिए भी तरसेगा।
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