आज से ठीक 37 साल पहले मेरठ (Meerut) के हाशिमपुरा की एक दर्दनाक घटना ने प्रशासन, पुलिस और सत्ता के उस काले चेहरे को उजागर किया था जिसमें सत्ता और पुलिस का मुस्लिम विरोधी (Anti Muslim) नफरत भरा चेहरा बेनकाब हो गया था।
मैं बात कर रहा हूं 22 मई 1987 के हुए उस हाशिमपुरा नरसंहार (Hashimpura Massacre) की जिसमें पीएससी के जवानों ने 42 मुसलमानों को गोलियों से भून कर नहर में फेंक दिया था।
इतिहास की तारीख में हाशिमपुरा नरसंहार वह काला धब्बा है जिसने हमारे समाज में पुलिस सिस्टम का वह खौफनाक चेहरा दिखाया है जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती है।
बिना किसी वजह उन बेगुनाहों को केवल उनके धर्म के आधार पर कत्ल किया गया, उस पर भी नमक छिड़कने वाली बात तो यह है कि तीस हजारी कोर्ट ने सबसे लंबे ट्रायल में 2015 में सभी 19 पुलिस वालों को बरी कर दिया था।
जिन परिवारों को इन नरसंहार में यतीम कर दिया गया था उनको तो इस फैसले ने इंसाफ से भी महरूम कर दिया था मगर आखिरकार 31 अक्टूबर 2018 को दिल्ली हाई कोर्ट ने 16 पुलिस वालों को उम्र कैद की सजा सुनाते हुए कहा था कि “आर्म्ड फोर्सेज के लोगों ने निशाना बनाकर हत्या की है। अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कत्ल किए गए हैं और उनके परिवार को न्याय पाने के लिए 31 साल का इंतजार करना पड़ा।”
हाशिमपुरा के पीड़ितों का दर्द
हाशिमपुरा के पीड़ितों के दर्द को जब सुनेंगे तो आपके पूरे बदन में सिरहन उठ जाएगी। आपको समझ में नहीं आएगा कि आप अपने उस दर्द को किस तरह से जगजाहिर करें।
इसी हाशिमपुरा नरसंहार की एक पीड़ित जैबुन की जुबानी उनके पूरे दर्द को शब्द व शब्द महसूस करने की कोशिश करिए। मीडिया को उन्होंने अपने दर्द को बताते कहा था कि “‘उस दिन अलविदा जुमा था. हमारी तीसरी बेटी उज्मा उसी रोज पैदा हुई थी. उसके अब्बा इकबाल अपनी बिटिया को देखकर नमाज पढ़ने गए थे लेकिन फिर कभी नहीं लौटे.”
”22 मई, 1987 को सेना ने जुमे की नमाज के बाद हाशिमपुरा और आसपास के मुहल्लों में तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी अभियान चलाया था. उन्होंने सभी मर्दों-बच्चों को मुहल्ले के बाहर मुख्य सड़क पर इकट्ठा करके वहां मौजूद प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबलरी (PAC) के जवानों के हवाले कर दिया। यूं तो आसपास के मुहल्लों से 644 मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उनमें हाशिमपुरा के 150 मुस्लिम नौजवान शामिल थे।”
जैबुन के पति इकबाल समेत 50 नौजवानों को पीएसी के ट्रक यूआरयू 1493 पर लाद दिया गया, जिस पर थ्री नॉट थ्री राइफलों से लैस पीएसी के 19 जवान थे। इन जवानों ने 22 मई की काली रात को नाजी जुल्म की भी हदें पार कर दीं थी।
मुस्लिम नौजवानों की आखिरी नमाज़
हाशिमपुरा के पांच नौजवानों को छोड़कर ज्यादातर नौजवानों के लिए अलविदा जुमे की नमाज आखिरी साबित हुई। उन्होंने सारे नौजवानों को मारकर मुरादनगर की गंग नहर और गाजियाबाद में हिंडन नहर में फेंक दिया। हाशिमपुरा के पड़ोसी मुहल्ले जुम्मनपुरा में खराद मशीन चलाने वाले इकबाल के सिर में गोली मारी गई और उनकी लाश हिंडन में मिली। इसके अलावा, हिरासत में भी पुलिस की पिटाई से कम से कम आठ लोगों-जहीर अहमद, मोईनुद्दीन, सलीम उर्फ सल्लू, मीनू, मोहम्मद उस्मान, जमील अहमद, दीन मोहम्मद और मास्टर हनीफ-ने दम तोड़ दिया था।
आजादी के बाद यह देश में हिरासत में मौत का सबसे बड़ा मामला है। 1984 के सिख विरोधी दंगे और 2002 में गुजरात नरसंहार में पुलिस की भूमिका उकसाने वाली और दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई न करने की थी लेकिन उन दोनों मामलों में मुकदमे चले और काफी दोषियों को सजा सुनाई जा चुकी है. दूसरी ओर, हाशिमपुरा नरसंहार के 25 साल पूरे होने को हैं और अभी तक एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया गया है. हम फिर भी जिए जाते हैं।
कांग्रेस की तत्कालीन निकम्मी सरकार
यह तो केवल एक पीड़ित की दर्द भरी दास्तां है, इसके अलावा भी आपको हजारों लोगों की ऐसी ही दर्दनाक कहानी सुनने और महसूस करने को मिल जायेगी।
मगर सवाल यहां पर पीड़ितों के दर्द से भी आगे बढ़कर है कि आखिर कैसे एक सरकार दंगों और नरसंहार को रोकने में विफल हो जाती है और ये परिवार जो अपने अपनों के साथ ख़ुशी से रह रहे थे वो अचानक से पीड़ित परिवार बन जाते हैं।
उस समय तो केंद्र में राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) और प्रदेश में वीर बहादुर सिंह (Veer Bahadur Singh) की सरकार थी। कांग्रेस तो सेकुलर मान्यताओं को मानते हुए सभी को साथ लेकर चलने का दावा करते थे मगर इनकी सरकार में इस प्रकार मुसलमानों का नरसंहार उसके इन दावों को खोखला साबित करने के लिए काफी है।
मुख्यमंत्री वीर बहादुर की बेशर्मी
आप खुद सोच कर देखिए कि जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार के यूपी के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह पर हिंदुत्ववादी समर्थक होने का आरोप लगा था तो उन्होंने बेशर्मी से जवाब में यह कहा था कि “दंगा तो हमारी राष्ट्रीय समस्या है, 1982 के दंगों में इससे ज्यादा लोग मारे गए थे.”
एक मुख्यमंत्री ऐसी बेहूदा बातें कहकर अपनी और अपने सरकार की नाकामी से पल्ला झाड़ लेता है जबकि हकीकत यह है कि उस तत्कालीन कांग्रेस सरकार में 26 पोर्टफोलियो को संभालते हुए महोदय के पास 72 डिपार्टमेंट थे और बाकी जितने भी मंत्रालय थे उसमें भी यह अपना हाथ पैर डालने की कोशिश में लगे रहते थे।
नरसंहार के लिए कांग्रेस सरकार ही जिम्मेदार
जिस प्रकार किसी सरकार में किसी अच्छे काम की पूरी की पूरी तारीफ उस सरकार के मुखिया पर आती है बिल्कुल वैसे ही इस प्रशासनिक फैलियर, पुलिस के मुस्लिम विरोधी चेहरे, मुस्लिम परिवारों को यतीम कर देने और सैंकड़ों मुस्लिम युवाओं को मार कर नहर में फेंक देने की जिम्मेदारी भी मुकम्मल तरीके से तत्कालीन कांग्रेस के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह और केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर ही आएगी। आप कितना भी इसे अपना पीछा छुड़ा लो अगर तल्ख हकीकत तो यही है।
सिख दंगों पर माफ़ी मगर हाशिमपुरा पर खामोशी
16 मार्च 2014 को कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने 1984 के सिख दंगों पर कहा था कि वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की तरफ से इन दंगों के लिए माफी मांगते हैं।
क्या राहुल गांधी जो मौजूदा समय में सबको एक साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं, आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी की बातें कर रहे हैं, क्या वह मुसलमानों के साथ कांग्रेस शासन काल में हुए इन दंगों और नरसंहार के लिए पब्लिक में माफ़ी मांगेंगे?
क्या वह यह कहेंगे कि हमें यह दुख है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और यूपी के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की के शासनकाल में PAC के जवानों द्वारा मुसलमानों के कत्लेआम पर हमारी पार्टी माफी मांगती है. हमें उसके लिए खेद है। हम उन परिवारों से हाथ जोड़कर माफी मांगते हैं।
सत्ता का मिजाज निरंकुश
मेरा सीधा सा मानना है कि सत्ता का मिजाज निरंकुश होता है चाहे उस तख़्त पर कोई भी बैठे वह बेगुनाह लोगों की जान से ही अपनी सत्ता की प्यास को बुझाते हैं।
सत्ता के सितम की हाशिमपुरा नरसंहार तो केवल एक छोटी सी कहानी है ऐसी हजारों और दास्तानें हैं जिन्होंने बेगुनाहों को निगल लिया है।
हाशिमपुरा के दर्द पर आप अपनी राय जरूर साझा करें !!!