21वीं सदी में भी विकास को तरसता सिद्धार्थनगर जिले का डुमरियागंज

भगवान बुद्ध की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश का सिद्धार्थनगर जिले का एक छोटा सा कस्बा और तहसील डुमरियागंज। केवल डुमरियागंज तहसील ही नहीं पूरा सिद्धार्थनगर उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े हुए जिलों में शुमार होता है।

डुमरियागंज और पूरे जिले की हालत यह है कि यहां पर कारोबार का कोई साधन नहीं है लोग केवल खेती पर निर्भर है जिसकी वजह से यहां से पलायन और बेरोजगारी की समस्या हमेशा लगी रहती है।

नेपाल बॉर्डर के साथ सटे होने की वजह से डुमरियागंज तहसील और सिद्धार्थ नगर जिला तस्करी के मामलों में भी अक्सर चर्चा में रहता है।

राप्ती नदी की वजह से अक्सर यहां पर बाढ़ की समस्या देखने को मिलती है। इस साल भी बाढ़ ने इस इलाके के बहुत सारी जगहों को अपनी चपेट में ले लिया था।

डुमरियागंज की राजनीति:

यूं तो कहने को डुमरियागंज विधानसभा सीट भी है और लोकसभा सीट भी है और समाजवादी पार्टी, बीजेपी और बसपा तीनों के नुमाइंदे यहां से चुनकर आते रहे हैं मगर जब बात विकास की और इस इलाके की तरक्की करवाने की होती है तो सभी नेता मौन धारण कर लेते हैं।

अगर बात राजनीति की करें तो डुमरियागंज विधानसभा उत्तर प्रदेश की उन गिनी चुनी विधानसभाओं में से है जहां पर 2012 के चुनाव में पहली बार पीस पार्टी चुनाव जीती थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के राघवेंद्र प्रताप सिंह, बीएसपी की सैयदा खातून से केवल 171 वोटों के मार्जिन से जीतकर इस इलाके की नुमाइंदगी उत्तर प्रदेश विधानसभा में करते थे। वहीं 2022 के चुनाव में सैयदा ने राघवेंद्र से पिछली हार का बदला लेते हुए चुनाव जीत लिया है। फ़िलहाल वो इस सीट से विधायक हैं।

पलायन की वजह से गुरबत:

ऐतिहासिक महत्व वाले जिले को टूरिज्म का गढ़ होना चाहिए था मगर टूरिज्म तो दूर की बात है यहां के रहने वाले लोग भी अपनी खस्ता हालत को देखते हुए पलायन करके दूसरे इलाकों में रोजी रोटी के लिए चले जाते हैं जिसमें दिल्ली और महाराष्ट्र प्रमुख हैं।

लोगों की आजीविका का एकमात्र साधन खेती है मगर हर साल बाढ़ की वजह से किसान बदहाली के हालत में जी रहा है। सरकारों की तरफ से हजारों वायदे और मुआवजे का ऐलान किया जाता है मगर आप जब ग्राउंड पर जाकर देखेंगे तो केवल आपको जीरो दिखाई देगा।

बात अगर पढ़ाई के मामले की की जाए कि यहां पर कोई भी बड़ा कॉलेज स्कूल नहीं है जिसको आप शिक्षा के पैमाने पर A ग्रेड का कह सके। ठीक वैसे ही जब बात सेहत सेवाओं की होती है तो डुमरियागंज अपनी बेबसी पर खून के आंसू बहाता है।

इलाके का आज़ादी के आंदोलन वाला इतिहास:

अगर ऐतिहासिक तौर पर इस जगह की बात करें तो बेगम हजरत महल जब अपने सैनिकों के साथ नेपाल गई थी तो उनकी फौज इसी डुमरियागंज में अमरगढ़ ताल पर रुकी थी और कुछ अर्से बाद अंग्रेजों की भारी-भरकम सेना के साथ यहीं पर लड़ाई हुयी थी जिसमें बेगम हजरत महल के बहुत सारे सैनिकों की मौत हो गई थी। ठीक इसी तरह मुंशी प्रेमचंद ने 7 साल तक यहां के गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ाया था।

अगर डुमरियागंज इलाके की आबादी की बात करी जाए तो 2011 की जनगणना के हिसाब से तकरीबन 30,000 के आसपास की आबादी है जिसने से 54 फीसद हिंदू और 43 फीसद मुसलमान है और बाकी आबादी दूसरे धर्मों के लोगों की है जिसमें बौद्ध धर्म के अनुयायियों की गिनती ज्यादा है।

अगर बात डुमरियागंज विधानसभा और तहसील की आबादी की करी जाए जिसके तहत 419 गांव आते हैं तो यहां की आबादी लगभग आधार एस्टीमेट 2021 के हिसाब से 475000 के आसपास है। यहां पर मर्द औरत के रैशियो में भी बहुत अंतर नहीं है।

तहसील की आबादी के हिसाब से यहां पर 60 फीसद आबादी हिंदू समुदाय और 38 फीसद आबादी मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती है खास बात यह है कि यहां पर दलितों की भी एक बड़ी गिनती 15 फीसद आबादी रहती है।

अधिकतर आबादी गांव में:

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि डुमरियागंज की केवल 8 फीसद आबादी ही शहरों में रहती है बाकी 92 फीसद आबादी आज भी गांव देहातों में निवास करती है। आबादी के रेशों को अगर और आसानी से समझना हो तो इस प्रकार समझ सकते हैं कि हिंदुओं में एक बड़ी आबादी ब्राह्मण, ओबीसी और यादव समुदाय से संबंधित है इसके अलावा दलित भी अच्छी आबादी में है।

मुसलमानों का क्षेत्र से संबंध:

बात अगर मुस्लिम समुदाय की की जाए तो यहां पर खान, मलिक और अंसारी समुदाय अच्छी आबादी में रहते हैं। अगर बात आज़ादी आंदोलन की करी जाए तो डुमरियागंज के बयारा गांव के निवासी मौलवी बिस्मिल्लाह के चार पुत्र थे, लेकिन जिसमें दो बेटे ऐसे थे जो भारत की आजादी में अपने को समर्पित किया।

एक का नाम काजी अदील अब्बासी व दूसरे का नाम काजी जलील अब्बासी था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व डुमरियागंज के पहले विधायक काजी अदील अब्बासी एक प्रसिद्ध पत्रकार थे, जिनकी अंग्रेजी, उर्दू, फारसी भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी।

शिक्षा पूरी कर वे अपनी कलम लेकर जंग- ए -आजादी के मैदान में कूद पड़े। जिससे अंग्रेज बेचैन हो गए। महात्मा गांधी के अहिसा एवं असहयोग आंदोलन में अहम किरदार निभाने वाले अदील अब्बासी जमींदार समाचार पत्र के संपादक थे।

जब काजी जलील ने लखनऊ आंदोलन का नेतृत्व किया तब पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि मुझे ऐसे नौजवानों पर गर्व है। अब भारत गुलाम नहीं रहेगा। काजी जलील स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य, मंत्री और अंत में डुमरियागंज लोकसभा सदस्य बने।

स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले इन दो सगे भाइयों का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। दोनों के नाम आजादी के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। सिद्धार्थनगर जिले के सृजन में भी इनका अहम योगदान रहा।

ऐतिहासिक अमीरी के बावजूद आज का सच ये ही है कि डुमरियागंज पलायन, म्यारी शिक्षा, बुनियादी सेहत सेवायें और बाढ़ से बर्बाद फसलों कि समस्याओं से हर रोज एक जंग लड़ रहा है। नेताओं के वादों से इतर सच में डुमरियागंज विकास का दीदार कब करेगा यह आने वाला वक़्त ही बताएगा।

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