क्या कभी मुसलमान (Muslims) खुद नेतृत्व करने के लिए तैयार नहीं होंगे या नहीं?
कुछ अरसा पहले राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जिनकी छवि पप्पू की थी उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा करने का फैसला किया। पूरे देश में पैदल चले, लोगों से मिले, उनका एक राजनीतिक ब्रांड बना और आज के समय में वह देश में दूसरा सबसे बड़ा चेहरा बन चुके हैं।
जो कल तक राहुल गांधी को इग्नोर करते थे आज उनके एक ट्वीट पर भी कई दिनों तक चर्चा का विषय बना कर बतियाते रहते हैं!
अब यहां पर सवाल यह उठता है कि क्या इस देश में एक भी मुसलमान ऐसा नहीं है जो राजनीतिक तौर पर लोगों से मिलने के लिए, लोगों के बीच जाने के लिए जमीनी सतह पर उतर सके।
या मुसलमानों ने तय कर लिया है कि केवल तमाम पार्टियों से विधायक सांसद तक ही सीमित रहेंगे!
उन पार्टियों के जो दूसरे नेता हैं वही उनकी भी अगुवाई करेंगे, वह तो केवल पीछे पल्ला पकड़ कर चलने का काम करेंगे।
क्या सच में मुसलमान के अंदर अगुवाई करने की क्षमता नहीं है या मुसलमान ने खुद अपने अंदर इस बात को बैठा लिया है कि वह राजनीतिक तौर पर नेतृत्व नहीं कर सकते हैं।
सांसद, विधायक, पार्षद और मंत्री यह सब बनना तो एक सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है मगर अपने आप को लोगों का नेता बना लेना यह अपने आप में बड़ी बात है।
क्या उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्य जहां पर मुसलमान की बड़ी गिनती आबाद है वहां पर एक भी मुस्लिम नेता ऐसा नहीं है जो अपने प्रदेश में तमाम मुसलमान लोगों से मिलने के लिए यात्रा पर निकले!
और कहे कि मैं इस यात्रा में जानने की कोशिश करूंगा कि आखिर मुस्लिम समाज की परेशानियां क्या हैं?
कब तक आप दूसरों की खींची हुई लकीर को ही अपनी सर आंखों पर रखेंगे कभी खुद भी एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करेंगें अथवा नहीं!
ऐतिहासिक तौर पर तो हमें हमेशा बताया जाता है कि हमारे नेता अबुल कलाम आजाद , खान अब्दुल गफ्फार खान, जोहर ब्रदर्स और पीर मोनिस जैसे दिग्गज थे मगर आज के समय में आज की राजनीति में मुसलमान राजनीतिक तौर पर केवल किसी पार्टी का सांसद और विधायक तक ही सीमित रहेंगे।
यहां तक की जो मुस्लिम पार्टियों भी है वह भी फिलहाल अपने आप में ही सीमित है या कुछ इलाकों तक सीमित है।
आखिर कब हम सर्वमान्य तौर पर पूरे भारत की बात करते हुए सड़कों पर उतरेंगे और कहेंगे कि हम भी मिलेंगे पूरे समाज से, बात करेंगे, उनकी परेशानियों को सुनेंगे, उनको महसूस करने की कोशिश करेंगे और फिर उन परेशानियों को दूर करने के लिए उनकी राजनीतिक आवाज को बुलंद करने की कोशिश करेंगे।
क्या ऐसी आवाज हमारे समाज में एक जगह भी नहीं है!
अब खुद सोच कर देखिए ना कि कांग्रेस (Congress) में रहते हुए वाईएसआर रेड्डी ने एक बड़ी यात्रा की थी। ममता बनर्जी तो अपने पैदल मार्च के लिए मशहूर है। यहां तक की अखिलेश यादव ने भी विधानसभा चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश का भ्रमण किया था। राहुल गांधी ने तो दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम तक की पूरी यात्रा की है।
मगर मुझे कोई मुस्लिम नाम नहीं दिखाई देता जो यह कहे कि मैं दिग्विजय सिंह की तरह नर्मदा यात्रा करूंगा और पूरे प्रदेश का भ्रमण कर डाले। आप एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करिए। मुसलमान समुदाय में कॉन्फिडेंस तो आएगा ही बाकी समाज भी आपके साथ जुड़ेंगे। वह भी आपको कहेंगे कि ये बंदा एक बड़ा नेता है, यह हमारे दुख तकलीफों को समझता है यह हमारी आवाज बनेगा।
आप प्रशांत किशोर की जितनी मर्जी बुराई कर लीजिए मगर उसकी एक अच्छी बात यह है कि अच्छा भला कॉरपोरेट टाइप का काम होने के बावजूद वह आदमी पिछले कई सालों से बिहार में गली-गली चौराहे चौराहे धूल फांक रहा है।
इसी बिहार में सैंकड़ों मुस्लिम नेता है मगर कोई मुस्लिम नेता अपने AC के बंद कमरों से निकालने को भी तैयार नहीं है।
जब आप खुद ही कोशिश नहीं कर रहे तो दूसरों पर ठीकरा फोड़ का क्या होगा?
एक बात समझ लीजिये राजनीति पूरी तरीके से परसेप्शन का खेल है, जितना बढ़िया परसेप्शन आप बनाएंगे उतना आपका राजनीतिक कद बढ़ेगा।
आप अपने आप को इतना बड़ा बना लीजिए कि सामने वाला खुद आपकी अगुआई को कबूल करने के लिए मजबूर हो जाए। आपको खुद को नेता साबित करना होगा, लोग खुद बी खुद आपके पीछे चलने लगेंगे। यही सीधा सा राजनीति का फार्मूला है।