
एक सवाल शायद आपके दिमाग में भी खूब कबड्डी करता होगा। आखिर क्या वजह है कि इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के लिए राजनीतिक विकल्प के तौर पर सिर्फ समाजवादी पार्टी ही नजर आ रही है? सपा के अलावा जितनी भी पार्टियां हैं उनको मुसलमानों ने सिरे से ही नकार क्यों रखा है?
ये सवाल इतना भी टेढ़ा नहीं है जितना नजर आता है। कुछ बुनियादी बातों को समझते ही आपको इसका जवाब आसानी से मिल जायेगा।
एक दौर होता था जब मुसलमानों के लिए उत्तर प्रदेश में बड़े तौर पर तीन विकल्प मौजूद होते थे सपा, बसपा और कांग्रेस। इसके अलावा कुछ छोटी मुस्लिम पार्टियां भी अपना वजूद रखती थी जैसे पीस पार्टी, कौमी एकता दल और इत्तेहाद मिल्लत कौंसिल आदि।
फिर 2017 के चुनाव में पूरे प्रदेश का चुनाव ध्रुवीकरण की भेंट चढ़ते ही यूपी की सत्ता पर भाजपा काबिज़ हो गयी। खैर मुसलमानों के लिए देशव्यापी तौर पर ही भाजपा द्वारा मुस्लिम विरोधी एजेंडा और नीतियों की वजह से मुसलमानों के लिए आगामी समय में केवल एक मात्र उद्देश्य मात्र रह गया कि बंटवारे की राजनीति करने वाले भाजपा के खिलाफ वोट करना और उसे हराना।
अब उसके बाद जो भी चुनाव हुआ चाहे लोकसभा हो या विधानसभा अथवा कोई लोकल चुनाव सब जगह मुसलमानो ने केवल भाजपा हराओ के नाम पर जीतने वाली पार्टी को देखते हुए वोट किया। उसमें भी सोने पर सुहागा ये हुआ कि कांग्रेस का प्रदेश की राजनीती में अमल दखल अबके समय में नहीं के बराबर रह चुका है वहीं बसपा द्वारा बहुत ठंडे तरीके से चुनाव लड़ना और ये प्रचारित होना कि वो तो भाजपा के साथ मिल जायेगी इस किस्सा कहानी ने पूरे प्रदेश में सिवाए सपा के सबको ख़त्म कर दिया।
अब ऐसा मत समझिये कि केवल यही वजह है कि मुसलमानों ने केवल सपा (Samajwadi PArty) को हाल फिलहाल में अपना राजनीतिक विकल्प बना लिया है बल्कि और भी बहुत सारे कारण है जिन्होंने मुसलमानों को सपा की तरफ आकर्षित किया है।
यहां ज्ञात रहे कि 2017 के बाद असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) ने भी यूपी की राजनीति में एंट्री की है मगर कोई बड़ी कामयाबी उनकी पार्टी AIMIM को हासिल नहीं हुयी है। मुसलमानों के मुद्दों पर उनकी पार्टी का प्रदेश की राजनीति में ज्यादा मुखर नहीं होना भी उनके लिए राजनीतिक नतीजे नहीं मिलने की एक वजह बना है।
भाजपा हराने के इतर एक बात याद रखनी चाहिए कि शायद भारत की राजनीति में इस समय अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ही ऐसे नेता है जिन्होंने अपने हर उस कार्यकर्त्ता से मुलाकात की है जिसको अधिकतर समय दूसरी पार्टियों वाले पूछते भी नहीं है। आप सपा के किसी भी छोटे से छोटे नेता और कार्यकर्त्ता से मिल लीजिये सभी के पास अखिलेश यादव के साथ HD में सिंगल फोटो जरूर मौजूद होगी जो अमूमन बाकि जगह देखने को नहीं मिलती थी।
आपकी तरह ही मुझे भी ये बात बहुत अखरती थी कि यार इतनी बड़ी पार्टी के अध्यक्ष होने के बावजूद अखिलेश यादव आये दिन अपनी ही पार्टी के किसी न किसी नेता कार्यकर्त्ता के किसी पारिवारिक प्रोग्राम में शामिल होने चले जाते है और उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी साझा की जाती है जैसे फलां विवाह समारोह, फलां श्रद्धांजलि प्रोग्राम आदि।
है तो बड़ी अजीब बात मगर जरा गौर से सोच कर देखिये के अगर किसी छोटे से कार्यकर्त्ता के घर किसी प्रोग्राम में अचानक से अखिलेश यादव पहुँच जायें तो उसके भौकाल का क्या लेवल होगा। उस प्रोग्राम में शामिल 500-1000 लोगों की आगामी हफ्ते भर की बातचीत की वजह केवल अखिलेश यादव ही होंगे। जो काम लाखों की रैलियां नहीं कर पाती है वो काम एक छोटे से प्रोग्राम में शामिल भर होने से हो जाता है।
ऐसे ही पश्चिमी यूपी में मुसलमानों के छोटे बड़े कारोबार है जिनकी वजह से उनको आये दिन प्रशासन, कोर्ट कचहरी और पुलिस का सामना करना पड़ता है इसलिए उनके लिए सोशल सिक्योरिटी का मामला बाकि सब मामलों से ज्यादा बड़ा है। मौजूदा राजनीतिक ढांचे में क्लियर है कि प्रदेश में केवल दो ही राजनीतिक ताकतें हैं भाजपा या सपा, शायद यही वजह है कि मेरठ से लखनऊ तक मुसलमानों के लिए अघोषित तौर पर सपा ही एकलौती विकल्प मानी जा रही है।
अब अगर हालिया कुछ घटनाओं की बात कर लें तो उन मामलों में सपा पर इतना बोल्ड राजनीतिक फैसला लेना भी मुसलमानों को उनकी तरफ आकर्षित करने के लिए काफी था। हाल ही में संभल के मुद्दे पर जिस प्रकार सपा ने सीधे तौर पर सत्ताधारी भाजपा और स्थानीय प्रशासन को घेरने का काम किया है वो राजनीतिक तौर पर बहुत अग्रेसिव मूव था। खास तौर पर संसद में ज़िआउर रहमान और विधानसभा में नवाब महमूद इक़बाल को आगे करके अखिलेश यादव ने जो मेसेज दिया उसका असर जमीन पर भी हुआ है।
ऐसे ही कुशीनगर में मस्जिद पर बुलडोज़र के मामले में विधान परिषद् के नेता प्रतिपक्ष समेत 16 लोगों का डेलीगेशन भेजना राजनीतिक तौर पर उचित फैसला था। मुसलमानों के मुद्दों पार हाल के समय में जैसे सपा मुखर हुयी है उसने मुसलमानों के दरमियान उनकी विश्वास बहाली का काम किया है।
पहले ये देखने को मिलता था कि अखिलेश यादव की बातों और समाजवादी पार्टी के सोशल मीडिया नरेटिव में एक फासला रहता था जैसे मुसलमानों को माइनॉरिटी बोलना जिसकी वजह से लोग अक्सर उनसे नाराज हो जाते थे मगर हालिया समय में इस मामले को भी दुरस्त किया गया है जिसका नतीजा हुआ कि जो लोग सुनना चाहते थे अब सपा ने राजनीतिक तौर पर वही लाइन अख्तियार करनी शुरू कर दी है।
मुझे लगता है कि शायद फिलहाल के समय में यही कुछ बुनियादी बातें है जिनकी वजह से मुसलमानों ने सपा को एक बार फिर अपनी पहली पसंद के रूप में तस्लीम कर लिया है जिसकी गवाही प्रदेश में वोट पैटर्न से स्पष्ट समझ में आ जाती है।