मुसलमानों की आजाद राजनीतिक आवाज में सबसे बड़ा रोड़ा कौन है?

ठेकेदार मौलाना या कथित सेकुलर पार्टियां?

इस सवाल का जवाब जितना दिखने में आसान लगता है उतना असल में है नहीं। एक लंबा इतिहास है जिसमें इस सवाल के जवाब को ढूंढने की कोशिश हमारे पुरखों द्वारा की गई है। 

चलिए इस उभरते हुए सवाल के जवाब को खोजने की कोशिश करते हैं!

सबसे पहली बात कि इस वक्त मुसलमान राजनीतिक तौर पर दो रास्तों पर खड़ा है। मगर इससे भी आगे बढ़कर एक रास्ता तो मुसलमानों को बेहद क्लियर है कि वो भाजपा को किसी कीमत पर राजनीतिक तौर पर वोट देने को तैयार नहीं है। 

मुस्लिम राजनीति पर दो विचार:

पहला विचार:

एक तरफ मुसलमान समाज की एक बड़ी गिनती जिसमें युवा अधिकतर शामिल है वह इस बात के लिए मुखर हो रहे हैं और उनके दिल और दिमाग में बार-बार यह बात आ रही है कि मुसलमानों के साथ भारत में राजनीतिक तौर पर मक्कारी की जा रही है। 

वो समझते है कि इस मक्कारी का इलाज उनको ढूँढना पड़ेगा तभी उनकी तरक्की के रास्ते खुल सकते है। उनकी नजर में मुसलमानों की जो सरकारी सतह पर प्रताड़ना हो रही है उसको उनकी आज़ाद मुस्लिम राजनीतिक आवाज कम करने का काम करेगी। 

उन को एक बात की बेहद स्पष्टता हो चुकी है कि जिनको वह अपना राजनीतिक मसीहा समझते थे उन्होंने उनको हर पहलू से, हर डगर पर केवल ठगने का ही काम किया है। 

जिन राजनीतिक पार्टियों को, जो अपने आप को कथित तौर पर सेकुलर कहती थी उन्होंने उन पार्टियों को एक तरफा तौर पर अपना समर्थन दिया, इस उम्मीद के साथ कि वह उनको सामाजिक सुरक्षा और उनके पिछड़ेपन को दूर करने में सहायता करेगी मगर आखिर में वही मिला ढाक के तीन पात। 

मुसलमानों ने अलग-अलग सेकुलर राजनीतिक पार्टियों को एक मुश्त वोट दिया इसके बावजूद इन राजनीतिक पार्टियों ने उनके साथ केवल मक्कारी के सिवा कुछ नहीं किया है। 

ये पार्टियां हमेशा नए नवेले बहानों के साथ एक ही राग अलापती रहती है कि देश में सम्प्रदायक ताकतें सर उठा लेंगी, वो सत्ता के शिखर पर बैठ जायेंगी मगर इसके बावजूद ये तल्ख़ हकीकत है कि वो कम्युनल पार्टी देश की सत्ता पर तीसरी बार काबिज हो चुकी है और ये पार्टियां केवल डफली बजा रही है। 

ये सेकुलर पार्टियां हमेशा भाजपा को हराने की ठेकेदारी मुसलमानों के कंधों पर डालते हुए उन्हें एक तरफा समर्थन देने को कहते रहे है और अभी तक जारी है। 

इससे भी आगे बढ़कर जब मुसलमानों ने कहा कि मुसलमान समाज को उनकी आबादी के हिसाब से राजनीतिक तौर पर टिकट बंटवारे में हिस्सा दिया जाए तो यह पार्टियों अक्सर यह कह कर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करती है कि अगर हम लोगों ने मुसलमानों को अधिक टिकट दिए तो हिंदू वोट का बंटवारा हो जाएगा, जिसकी वजह से सांप्रदायिक ताकतें जीत जाएंगे। 

इसी चक्कर में अक्सर यह देखने को मिला है कि मुसलमानों को अक्सर मुस्लिम बहुल सीटों के अलावा कभी भी कहीं पर टिकट नहीं दिया जाता है। इससे भी आगे बढ़ कर जहाँ पर मुस्लिम बहुल भी हैं वहां पर भी भाजपा हराने के नाम पर डंडी मारने की कोशिश की जाती है। ऐसी सीटों के कई उदाहरण है जो है तो मुस्लिम बहुल मगर वहां से ये पार्टियां मुस्लिम समाज की जगह किसी दूसरे समाज के प्रत्याशी को चुनाव जितवाने का काम करते है। 

उदाहरण के साथ समझना हो तो जब 2019 में EVM की जगह लोगों के मुस्लिम विरोधी लहर में दिमाग हैक हुए थे और हिंदुत्वा का नशा उफान पर था तब मौजूदा विपक्षी नेता राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए थे तो उनके लिए सेफ सीट के रूप में केरल की मुस्लिम बहुल वायनाड सीट को चुना गया था। 

Loksabha ACMuslim %WinnerYear
Wayanad41.30%Priyanka Gandhi2024
Wayanad41.30%Rahul Gandhi2019
Wayanad41.30%M I Shanavas2014

ऐसे ही परिसीमन के नाम पर नगीना, बहराइच, करीमगंज, राजमहल जैसी सीटों से मुसलमानों के राजनीतिक वजूद को खत्म कर दिया गया है। 

Loksabha ACMuslim %Reserved for
Nagina43.04%SC
Bahraich33.53%SC
Karimganj53.70%SC
Rajmahal33.30%ST

ऐसे ही पश्चिम बंगाल में एक मुस्लिम बहुल सीट बहरामपुर में, जहां पर मुसलमान आबादी के लिहाज से बहुसंख्यक है इसके बावजूद एक लंबे अरसे तक वहां से सेकुलर पार्टी कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी की चुनाव जीत कर सांसद बनते रहे है। ये सीट हमेशा मुसलमानों की राजनीतिक आवाज से महरूम रहा है मगर 2024 के लोकसभा चुनाव में उलटफेर करते हुए वहां से टीएमसी की तरफ से यूसुफ पठान चुनाव जीते हैं वो अलग बात है कि मुसलमान समाज के मुद्दों पर उनकी जुबान पर भी हमेशा ताला लगा रहता है।

Loksabha ACMuslim %WinnerPartyYear
Baharampur52.00%Yusuf PathanTMC2024
Baharampur52.00%Adhir Ranjan ChowdhuryINC2019, 2014, 2009, 2004, 1999

दूसरा विचार:

इसके बाद एक सबसे अहम कड़ी है जिसको मुसलमानों की तरफ से दूसरा रुख समझा जाता है। यूँ कह लें कि फिलहाल के समय में राजनीतिक तौर पर इस राय का वजूद और वजन थोड़ा ज्यादा है। 

मुसलमानों की एक बड़ी गिनती जिसकी रहनुमाई दीनी क़ायद करते है और वो समाजिक तौर पर मुस्लिम समाज में अधिक प्रभाव रखते है उनका ये मानना है कि मुसलमानों की अपनी राजनीतिक आवाज जो मुस्लिम पार्टी की शक्ल में हो उसका वजूद नहीं होना चाहिए। 

उनकी नजर में मुसलमानों को अब अपनी राजनीतिक पार्टी नहीं बनानी चाहिए उनको इन्हीं सेकुलर पार्टियों का दागदार दामन पकड़ के आजीवन चलते रहना चाहिए। 

यह सॉफ्ट संघी पार्टियां जो दें वह ले लो जो ना दें उसके लिए गिला शिकवा ना करो। इसमें अक्सर देखने को मिला है कि कुछ धार्मिक नेता खुद को स्वघोषित तौर पर कौम का ठेकेदार घोषित कर के समर्थन रूपी लिस्ट का सौदा अक्सर इन पार्टियों से करते रहते हैं। 

यहां ये भी देखने को मिलता है कि अक्सर कुछ दीनी रहनुमा अपने उन धार्मिक संस्थानों की आड़ में, जिसमें आप दिल्ली की जामा मस्जिद की बात करो अथवा देवबंद के साथ जमीयत की वो राजनीतिक तौर पर कुछ खास राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर लिस्ट जारी करने के समुदाय को फरमान जारी करने का भी काम करते है। 

उदाहरण के साथ समझना हो तो दिल्ली जामा मस्जिद और बुखारी खानदान से बेहतरीन कुछ नहीं हो सकता है। मस्जिद के मिम्बर से कभी अब्दुल्ला बुखारी राजनीतिक फरमान जारी करते थे अब उनके बेटे अहमद बुखारी भी वही काम कर रहे है। 

जब यूपी में 2012 का विधानसभा चुनाव था तो ये काम बहुत डंके के साथ हुआ था। जामा मस्जिद से सपा के समर्थन का ऐलान हुआ था और चुनाव बाद सपा की पूर्ण बहुमत से सरकार भी बन गयी थी। 

खास बात ये रही कि इसका भरपूर इनाम भी प्रदान किया गया था। उस समय के शाही इमाम अहमद बुखारी के दामाद उमर खान जो सहरानपुर से चुनाव हार गए थे उनको एमएलसी बना कर विधान परिषद भेजा था। ऐसे ही उनके एक रिश्तेदार वसीम अहमद खान को यूपी प्रदुषण कंट्रोल बोर्ड का अध्यक्ष कैबिनेट रैंक के साथ बनाया गया था। 

अपने शुरुआत से मुसलमानों की आज़ाद राजनीतिक आवाज की घोर विरोधी रही जमीयत उलेमा हिन्द भी इस कड़ी में दूसरा नाम है। यहां ज्ञात रहे कि मौजूदा समय में जमीयत के सदर मौलाना महमूद मदनी 1998 में असम के धुबरी से लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के सिंबल पर लड़ चुके हैं। 

फिर उन्होंने 2004 में रालोद के टिकट पर अमरोहा से चुनाव लड़ा था जिसमें वो दूसरे नंबर पर रहे थे। अपनी राजनीतिक निष्ठा की वजह से उनको 2006 में रालोद ने अपने कोटा से राज्यसभा भेज दिया था। 

ElectionACMuslim %CandidatePartyVotes
Lok Sabha 1998Dhubri72.30%Mahmood MadniSP64,805
BaharampurAmroha39.03%Mahmood MadniRLD269,638
Rajya Sabha 2006UPNAMahmood MadniRLD2006-12

वहीं उनके पिता मौलाना असद मदनी भी कांग्रेस की तरफ से तीन बार (1968-74, 1980-86, 1988-94) राज्यसभा के सांसद रहे है।

ElectionACCandidatePartyYear
Rajya SabhaUPAsad MadniINC1968-74
Rajya SabhaUPAsad MadniINC1980-86
Rajya SabhaUPAsad MadniINC1988-94

जमीयत के मामले में सबसे रुचक पहलु ये है कि जब मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने अपनी पार्टी AIUDF को बनाया तो कांग्रेस ने उस पार्टी को ख़त्म करने का हर तरीका इस्तेमाल किया था। 

आईपीएस अब्दुर रहमान की किताब “Absent in Politics and Power” में तो यहां तक दावा किया गया है कि मौलाना बदरुद्दीन अजमल को कांग्रेस ने अपने मदनी परिवार के प्रभाव से जमीयत के प्रदेश अध्यक्ष से हटवा दिया था। कांग्रेस इसके बाद भी मुस्लिम पार्टी AIUDF को ख़त्म करने अथवा कांग्रेस में विलय के तमाम षड्यंत्र करती रही मगर उसको अभी तक कोई कामयाबी हासिल नहीं हुयी है। 

“In the 1970s when Osmani, a prominent leader, formed the United Muslim Front in Assam, the Congress promised him the position of CM of Assam, and got him to merge his party with the Congress. After Osmani did so, he was made only a minister in Assam. Another example is from Assam itself. A few years ago when Ajmal formed the AIUDF, and it made some headway in the Assam elections, the Congress managed to remove him from the Assam unit of JUH το through the influence of the Madani family.”

Book: Political Exclusion of Indian Muslims (Page; 283)

सेकुलर पार्टियों की कूटनीति:

इसके बाद जो सबसे बड़ी बात उभर कर सामने आती यही वो ये है कि इस मुस्लिम राजनीति की नूरा कुश्ती में हमेशा एक पक्ष विजेता होता है वो है सेकुलर राजनीतिक पार्टियां। इसकी सबसे बड़ी बाहुबली कांग्रेस पार्टी ही है। उसने कभी भी मुसलमानों आज़ाद राजनीतिक आवाज को उभरने ही नहीं दिया है। अगर कोई उभर भी गया हो तो उसको हमेशा तोड़फोड़ कर के अपने साथ विलय के लिए मजबूर कर दिया गया है। 

कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम राजनीति को ख़त्म करने के लिए साम दाम दंड भेद हर हरबे का बखूबी इस्तेमाल किया है। अक्सर उन मुस्लिम पार्टियों के नेताओं ने कभी अपने निजी हितों तो कभी भरोसे के साथ कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ाया है मगर बदले में केवल धोखा ही मिला है। 

कांग्रेस ने अपनी कूटनीति और कुछ धार्मिक नेताओं को अपने पाले में रख कर हमेशा मुसलमानों की मुखर आवाज को खत्म करने काम किया है। राष्ट्रीय सतह पर व्यापक असर वाली केवल तीन मुस्लिम पार्टियां AIMIM, IUML और AIUDF है। इनको ख़त्म करने के लिए सेकुलर राजनीति ने कितना जोर लगाया है ये किसी से छिपा हुआ नहीं है। 

मौजूदा समय में AIMIM की ताकत:

NameElectionAC NameState
Asaduddin OwaisiLok Sabha 2024HyderabadTelangana
Majid HussainAssembly 2023NampallyTelangana
Kausar MohiuddinAssembly 2023KarwanTelangana
Mir Zulfeqar AliAssembly 2023CharminarTelangana
Akbaruddin OwaisiAssembly 2023ChandrayanguttaTelangana
Jaffer HussainAssembly 2023YakutpuraTelangana
Mohammed MubeenAssembly 2023BahadurpuraTelangana
Ahmed Bin Abdullah BalalaAssembly 2023MalakpetTelangana
Mufti Mohammad IsmailAssembly 2024Malegaon CentralMaharasthra
Akhtarul ImanAssembly 2020AmourBihar

मौजूदा समय में AIUDF की ताकत:

NameElectionAC NameState
Abdul AzizAssembly 2021BadarpurAssam
Zakir Hussain LaskarAssembly 2021HailakandiAssam
Sujam Uddin LaskarAssembly 2021KatlicherraAssam
Nizamuddin ChoudhuryAssembly 2021AlgapurAssam
Karim Uddin BarbhuiyaAssembly 2021SonaiAssam
Adv. Aminul IslamAssembly 2021MankacharAssam
Nazrul HoqueAssembly 2021DhubriAssam
Nijanur RahmanAssembly 2021GauripurAssam
Hafiz Bashir AhmedAssembly 2021Bilasipara WestAssam
Samsul HudaAssembly 2021Bilasipara EastAssam
Phanidhar TalukdarAssembly 2021BhabanipurAssam
Rafiqul IslamAssembly 2021JaniaAssam
Ashraful HussainAssembly 2021ChengaAssam
Mazibur RahmanAssembly 2021DalgaonAssam
Aminul IslamAssembly 2021DhingAssam
Sirajuddin AjmalAssembly 2021JamunamukhAssam

मौजूदा समय में IUML की ताकत:

NameElectionAC NameState
A. K. M. AshrafAssembly 2021ManjeshwarKerala
N. A. NellikkunnuAssembly 2021KasaragodKerala
M. K. MuneerAssembly 2021KoduvallyKerala
T. V. IbrahimAssembly 2021KondottyKerala
P. K. BasheerAssembly 2021EranadKerala
U. A. LatheefAssembly 2021ManjeriKerala
Najeeb KanthapuramAssembly 2021PerinthalmannaKerala
Manjalamkuzhi AliAssembly 2021MankadaKerala
P. UbaidullaAssembly 2021MalappuramKerala
P. K. KunhalikuttyAssembly 2021VengaraKerala
P. Abdul HameedAssembly 2021VallikkunnuKerala
K. P. A. MajeedAssembly 2021TirurangadiKerala
Kurukkoli MoideenAssembly 2021TirurKerala
K. K. Abid Hussain ThangalAssembly 2021KottakkalKerala
N. ShamsudheenAssembly 2021MannarkkadKerala
E. T. Muhammed BasheerLok Sabha 2024MalappuramKerala
M. P. Abdussamad SamadaniLok Sabha 2024PonnaniKerala
P.V.Abdul WahabRajya Sabha 2021KeralaKerala
Haris BeeranRajya Sabha 2024KeralaKerala

कांग्रेस और तमाम सेकुलर पार्टियों को लगता है कि मुसलमानों का वोट तो केवल उनके बाप की बपौती है इसलिए कोई भी मुस्लिम राजनीतिक वजूद उभरना नहीं चाहिए क्यूंकि वो उनसे उनका एक फिक्स वोट बैंक छीन लेगा। 

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मजलिस का कांग्रेस ने ऐतिहासिक तौर पर क्या किया था ये किसी से ढका छुपा हुआ नहीं है। पीस पार्टी, इत्तेहाद कौंसिल और कौमी एकता दल के साथ सेकुलर राजनीति ने क्या किया है ये भी आपके लिए एक मिसाल होनी चाहिए। एक समय में उलेमा कॉउंसिल बटला हाउस प्रकरण के बाद उभर कर सामने आयी थी मगर उसकी आज के समय में क्या हैसियत रह गयी है अब खुद अपनी आँखों से उसे स्पष्ट देख सकते हैं। 

बिहार की राष्ट्रीय मजलिस पार्टी, महाराष्ट्र की अवामी विकास पार्टी, पश्चिम बंगाल की इंडियन सेकुलर फ्रंट और तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम का क्या वजूद है आप खुद पता कर सकते है। 2009 में यूपी में लोकतांत्रिक पार्टी का सपा में विलय में बहुत कुछ बताता है। 

आज के समय में AIMIM का देशव्यापी उभार अक्सर इन राजनीतिक पार्टियों को तकलीफ देता है। यही वजह है कि जिस बिहार में मजलिस की तरफ से 5 विधायक जीत कर आये थे उनमें से 4 विधायकों को राजद ने तोड़ कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। महाराष्ट्र में भी इम्तियाज़ जलील की अगुआई में मजलिस का प्रदर्शन MVA को बहुत तकलीफ की अनुभूति प्रदान करता है। 

मौजूदा समय में मुस्लिम युवाओं में AIMIM और असदुद्दीन ओवैसी का बढ़ता क्रेज इन सेकुलर पार्टियों को मजलिस पर हमलावर होने के लिए मजबूर कर देता है। उनकी नजर में जिस मुस्लिम राजनीति को वो हमेशा सेटल कर लेते थे वो अब उनके कंट्रोल से जरा बाहर होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि देश का 15% फिक्स मुस्लिम वोट उनके हाथ से निकल अपनी राजनीतिक आवाज की तरफ अग्रसर हो जाए। 

मुसलमानों के दीनी रहनुमाओं का रोल:

आज के समय में एक बात और अच्छे से जान लीजिए। जब कभी भी मुस्लिम राजनीति के किसी भी पहलु में आप आगे बढ़ेंगे तो मुसलमानों के कुछ दीनी रहनुमा जो खुद को राजनीतिक नुमाइंदा भी घोषित करते है वो सेकुलरिज्म और लोकतंत्र को बचाने के नाम पर मुसलमानों को कुछ कथित सेकुलर पार्टियों को वोट करने के लिए आह्वान करते हुए नज़र आयेंगे। 

हाल ही में हुआ महाराष्ट्र चुनाव इसकी सबसे बेहतरीन उदहारण है। चुनाव से एक महीने पहले तक सब कुछ सेट था, लोगों का पूरा रुझान तत्कालीन सत्ताधारी भाजपा गठबंधन को सत्ता से हटाने का माहौल बना हुआ था। मुस्लिम राजनीती के तहत भी लोगों ने AIMIM को अधिकतर जगह पर समर्थन का मन बनाया हुआ था। 

मगर फिर इसमें एंट्री होती है मौलाना सज्जाद नौमानी की। वो एक समर्थन वाली लिस्ट ले कर प्रेस में पहुंच जाते है और एक एक सीट का नाम ले कर सेकुलर पार्टियों को समर्थन देने का ऐलान कर देते है। बीएस इस प्रेस कांफ्रेंस ने महाराष्ट्र के राजनीति में एक नया भूचाल ला दिया और भाजपा के खेल में बम्पर तरीके से वापस आने की वजह भी बनी थी। 

वैसे तो मौलाना नौमानी ने ऐलान किया था कि उनका ये समर्थन सम्प्रदायक राजनीति को हराने के लिए है मगर इसका उल्टा असर होता है। भाजपा के तब के सबसे बड़े चेहरा और अभी के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देते हुए अपने चुनावी मंचों से मौलाना के वीडियो दिखाते हुए इसे “वोट जिहाद” का नाम दे कर पूरे चुनाव को हिंदू मुसलमान में तब्दील कर देते है। 

नतीजा ये निकला कि सेकुलर वोट तो एक मुश्त नहीं हुआ मगर भाजपा का कट्टर हिंदुत्व वाला कार्ड जैम कर चल गया। चुनाव परिणाम आने तो सभी हैरान क्यूंकि भाजपा गठबंधन चुनाव दो तिहाई के बहुमत से जीत चुका था और विपक्ष तो विपक्ष कहलाने लायक सीटें भी जीतने में नाकाम रहा है। 

इस पुरे प्रकरण में मौलाना नौमानी के समर्थन में जिस बात से सबसे ज्यादा बवाल हुआ था वो ये था कि जो मौलाना कई सालों से मुसलमानों की आज़ाद राजनीतिक आवाज के पक्षधर थे वो अचानक से सेकुलरिज़्म के नाम उन पार्टियों को भी समर्थन देने का ऐलान करते है जो कल हिंदुत्व की राजनीति के सबसे बड़ा चेहरा थे। 

प्रदेश में AIMIM के मुफ़्ती इस्माइल के अलावा बाकि सीटों पर शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को समर्थन ने मुस्लिम समाज में मौलाना के खिलाफ एक जबरदस्त रोष का माहौल बना दिया। अभी के समय में महाराष्ट्र की राजनीति में मुस्लिम राजनीति का सबसे मुखर चेहरा इम्तियाज़ जलील को भी समर्थन न देना मौलाना नौमानी के प्रति आम मुसलमानों के गुस्से की वजह बना था। 

गजब तो ये हो गया कि जो शिवसेना कल तक हिंदुत्व की पोस्टर बॉय थी और चुनाव में भी अधिकतर मुस्लिम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद उद्धव ठाकरे द्वारा केवल एक मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान में उतारा गया था फिर भी मौलाना सज्जाद नौमानी ने  शिवसेना को अधिकतर सीटों पर समर्थन का ऐलान किया था। 

इसी प्रकार कुछ बवाल लोकसभा चुनाव 2024 में औरंगाबाद सीट को ले कर भी हुआ था। इस सीट पर तत्कालीन सांसद इम्तियाज़ जलील दुबारा चुनाव लड़ रहे थे। एक दम चुनाव के बीचों बीच एक वीडियो वायरल होता है जिसमें जमीयत के एक कथित जिम्मेदार इम्तियाज़ जलील के खिलाफ वोट करने का आह्वान करते है जिसके बाद वहां की राजनीति में खूब बवाल होता है। खूब सफाई पेश की जाती है मगर आम जनता में ये बात खूब अच्छे से फ़ैल जाती है कि मुसलमानों की सबसे बड़ी तंजीम ने एक मुस्लिम सांसद के खिलाफ ही झंडा उठा लिया है।

मुस्लिम राजनीती में अहम उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र:

अगर आप मुस्लिम राजनीति को और ठीक से समझाना चाहते हैं तो आपको दो राज्यों की मुस्लिम राजनीति को जरा गहरायी से समझना होगा। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश मुस्लिम आबादी के हिसाब से दो बड़े राज्य माने जाते है जहाँ लोकसभा और विधानसभा के बड़ी गिनती में सीटें मौजूद है। 

जहां उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी 19.26% और महाराष्ट्र में 11.54% है। दोनों जगह पर अच्छी मुस्लिम आबादी के बावजूद आज तक मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुरूप राजनीतिक हिस्सेदारी नहीं मिली है। 

खास तौर पर महाराष्ट्र में कुछ ज्यादा ही बुरा हाल है। आबादी के अनुसार यहाँ पर कमसे कम 32-35 मुस्लिम विधायक होने चाहिए थे मगर हमेशा ये आंकड़ा 10 विधायकों तक ही सीमित रहता है। जो कि राजनीतिक हिस्सेदारी का एक तिहाई भी नहीं होता है। इस चुनाव में भी केवल 10 मुस्लिम विधायक ही चुने गए हैं। 

AssemblyWinnerParty
Malad WestAslam ShaikhINC
MumbadeviAmin PatelINC
Akola WestSajid Khan PathanINC
Anushakti NagarSana MalikNCP
KagalMushrif HasanNCP
Bhiwandi EastRais ShaikhSP
Mankhurd Shivaji NagarAbu Asim AzmiSP
SillodAbdul SattarSS
Malegaon CentralMufti Mohammad IsmailAIMIM
VersovaHaroon KhanUBT

इससे भी खतरनाक बात तो ये है कि प्रदेश की अधिकतर मुस्लिम बहुल सीटों पर सेकुलर पार्टियां मुसलमानों की जगह किसी दूसरे समुदाय को टिकट देती है। कुछ सीटें पर तो वो नेता कई सालों से चुनाव जीत कर विधायक सांसद बन रहे है। 

मुम्ब्रा कलवा, भायखला, अमरावती, भिवंडी पश्चिम, धारावी, कुर्ला आदि ऐसी सीटें है जो वैसे तो मुस्लिम केंद्रित सीटें है मगर सेकुलर पार्टियां यहां पर मुस्लिम प्रत्याशी को चुनावी मैदान में उतारने से हमेशा कन्नी कतराती है। परिसीमन के अन्याय ने इन सेकुलर पार्टियों को और बढ़ावा देने का काम किया है। 

Assembly ConstituencyMuslim %
Bhiwandi West47.9
Amravati46
Mumbra-Kalwa43.5
Byculla41.3
Akola West41
Aurangabad Central38.2
Aurangabad East37.1
Dharavi (SC)33.3
Versova33.3
Vandre East33
Kurla (SC)30.7

सोच कर देखिये जिस प्रदेश में लगभग 12% मुस्लिम आबादी हो उस महाराष्ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से एक सीट पर किसी मुस्लिम को ये सेकुलर पार्टियां उम्मीदवार नहीं बनाती है। 2004 में कांग्रेस के कद्दावर नेता AR अंतुले के बाद कोई सांसद नहीं बना था। 2019 के चुनाव में केवल AIMIM से इम्तियाज़ जलील औरंगाबाद का चुनाव जीत सांसद बने थे। 

इन सेकुलर पार्टियों द्वारा मुसलमानों को इस कदर नजरअंदाज किये जाने पर अब मुस्लिम समुदाय ने भयंकर तरीके से विरोध दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। जो पार्टियां कल तक राज्यसभा, विधान परिषद् आदि के लॉलीपॉप से मुस्लिम समाज को बहलाने की कोशिश करती थी उनसे बगावत करते हुए अब मुस्लिम समाज ने दूसरे विकल्प ढूंढने शुरू कर दिए है। 

अगर राजनीतिक हैसियत की बात करूं तो मेरी नजर में उत्तर प्रदेश के मुसलमान बाकि राज्यों के मुकाबले जरा बेहतर हैं। 

यूपी में आबादी के हिसाब से मुसलमानों के लगभग 80 विधायक होने चाहिए थे मगर 2022 के चुनाव में केवल 34 मुस्लिम विधायक ही चुने गए थे। अलग अलग केस की वजह से 4 सीटों पर उप चुनाव हुए जिनमें से केवल दो पर ही मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव जीत सके जिसकी वजह से ये गिनती फिलहाल 32 पर पहुंच गयी है। खास बात तो ये है कि इस चुनाव में 52 मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव हारने की वजह से दूसरे नंबर पर रहे थे। 

SrNamePartyAssembly
1Mehboob AliAmrohaSamajwadi Party
2Naseer Ahmed KhanChamrauwaSamajwadi Party
3Nafees AhmedGopalpurSamajwadi Party
4Bhawan Ashraf Ali KhanThanaRashtriya Lok Dal
5Mohd.Abdullah Azam KhanSwarSamajwadi Party
6Haji Irfan SolankiSisamauSamajwadi Party
7Ziauddin RizviSikandarpurSamajwadi Party
8Iqbal MahmudSambhalSamajwadi Party
9Mo.Azam KhanRampurSamajwadi Party
10Nadira SultanPatialiSamajwadi Party
11Alam BadiNizamabadSamajwadi Party
12Mo.NasirMoradabad RuralSamajwadi Party
13Suhaib alias Mannu AnsariMohammadabadSamajwadi Party
14Abbas AnsariMauSBSP
15Maria ShahMateraSamajwadi Party
16Zia ur RahmanKundarkiSamajwadi Party
17Kamal AkhtarKanthSamajwadi Party
18Mohd. HassanKanpur Cantt.Samajwadi Party
19Armaan KhanLucknow WestSamajwadi Party
20ZahidBhadohiSamajwadi Party
21Mohammad Tahir KhanIssauliSamajwadi Party
22Ataur RahmanBaheriSamajwadi Party
23Shahid ManzoorKithorSamajwadi Party
24Rafiq AnsariMeerutSamajwadi Party
25Tasleem AhmedNajibabadSamajwadi Party
26Farid Mahfouz KidwaiRamnagarSamajwadi Party
27Nawab JanThakurdwaraSamajwadi Party
28Sayyida KhatoonDumariaganjSamajwadi Party
29Ashu MalikSaharanpurSamajwadi Party
30Ghulam MohammadSiwalkhasRashtriya Lok Dal
31Mohd FaheemBilariSamajwadi Party
32Shahjil Islam AnsariBhojipuraSamajwadi Party
33Umar Ali KhanBehatSamajwadi Party
34Nahid HassanKairanaSamajwadi Party

जब 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व का कार्ड अपने उफान पर था उस समय मुस्लिम विधायकों की ये गिनती केवल 24 पर पहुंच गयी थी। अधिकतर मुस्लिम उम्मदीवार वोट बंटवारे की वजह से चुनाव हार गए थे। वैसे अमूमन राज्य की राजनीति में 40 से 50 मुस्लिम विधायक हमेशा रहे हैं। 

मुस्लिम राजनीति अपनी चरमसीमा पर 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में पहुंची थी। इस साल 68 मुस्लिम विधायक चुन कर विधानसभा पहुंचे थे वहीं 63 मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव हारने की वजह से दूसरे नंबर पर रहे थे। 

अब अगर लोकसभा की बात करें तो प्रदेश की 80 सीटों में से आबादी के हिसाब से 16 सांसद होने चाहिए थे मगर 2024 के चुनाव में केवल 5 सांसद ही चुने गए है। राजनीतिक समीकरण के खेल की वजह से मुस्लिम ज्यादातर समय इस आंकड़ें तक नहीं पहुंच पाते है। केवल 1980 के चुनाव में ही यूपी से 18 मुस्लिम सांसद चुने गए थे उसके बाद ये चमत्कार कभी नहीं हुआ है। इसके अलावा राज्यसभा में भी 1-2 मुस्लिम  सांसद चुन कर पहुंचते रहे हैं। 

SrElection YearMember ParliamentLok Sabha ACParty
12024Imran MasoodSaharanpurCongress
22024Iqra ChoudharyKairanaSamajwadi Party
32024Ziaur Rahman BarqSambhalSamajwadi Party
42024Afzal AnsariGhazipurSamajwadi Party
52024Mohibullah NadviRampurSamajwadi Party

अब यहां पर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों का ठीक-ठाक अमल दखल है इसके बावजूद भी इस समय भाजपा सत्ता में बैठी हुई है। भाजपा की पूरी राजनीति ही मुस्लिम विरोध और चूड़ी टाइट करने पर टिकी हुयी है। 

उत्तर प्रदेश का मुसलमान आज भी अपनी खुद की राजनीतिक हैसियत को बनाने की जगह उनकी पारंपरिक सेकुलर पार्टियों के पीछे खड़ा है जो उनकी राजनीतिक हैसियत को ख़त्म करने की तरफ अग्रसर रहती है। समाजवादी पार्टी का मुसलमानों के साथ बोल्ड तरीके से खड़े रहने का ही नतीजा है कि 2022 विधानसभा और 2024 में मुसलमानों ने सपा को एक तरफ़ा सपोर्ट किया है। 

इसके अलावा कांग्रेस और बसपा भी मुसलमानों के लिए विकल्प के तौर पर रही है। इसी कड़ी में पश्चिमी यूपी में रालोद को भी मुसलमानों का समर्थन रहा है मगर भाजपा के साथ जाने के बाद मुसलमानों ने इनको भी दरकिनार करना शुरू दिया है। 

जो पीस पार्टी 2012 में 4 विधायकों के साथ एक नयी ताकत बन कर उभरी थी वो इस समय अपने राजनीतिक वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। मुख़्तार अंसारी की कौमी एकता दल का भी सपा में विलय हो चुका है। उलेमा कौंसिल कभी बड़ी ताकत बनने की तरफ अग्रसर थी मगर उनका भी राजनीतिक वजूद खात्मे की तरफ है। 

रही बात इस समय मुस्लिम पॉलिटिक्स की पोस्टर बॉय AIMIM की तो उसका प्रदेश की राजनीती में कभी भी वो वजूद नहीं बन पाया है जैसा जनता का समर्थन उसको तेलंगाना, महाराष्ट्र और बिहार में देखने को मिला है। अब इस बनवास की वजह हो सकती है जिसमें सबसे बड़ी वजह तो प्रदेश में मुसलमानो के मुद्दों पर गायब रहना प्रमुख कारण हो सकता है। 

अब इस पूरी किस्सा कहानी का निष्कर्ष क्या है?

आखिर किसको मुस्लिम राजनीति के वजूद में सबसे बड़ा रोड़ा समझा जाये?

मुझे लगता है इस मामले में कोई एक कारक जिम्मेदार नहीं है। हर पहलु से इस मामले में अड़ंगा डाला गया है। केवल कुछ दीनी रहनुमाओं को जिम्मेदार ठहरा देना भी ज्यादती होगी। एक सोच है जो अभी भी मुस्लिम समाज के अधिकतर समूह में व्यापक है कि मुसलमानों की अपनी आज़ाद राजनीतिक आवाज नहीं होनी चाहिए। जिसका बड़े पैमाने पर फायदा सेकुलर पार्टियां खास तौर पर कांग्रेस उठाती है। 

अगर कोई कोशिश मुस्लिम राजनीतिक पार्टी बनती भी है तो दो कारणों से हमेशा उसका वजूद अधर में लटक जाता है। अक्सर नेताओं के निजी हित इस मामले में आड़े आ जाते है। वो अपने निजी राजनीतिक फायदों के लिए विलय की तरफ अग्रसर हो जाते है। ऐसे ही स्थापित सेकुलर पार्टियां भी अपनी कूटनीति से उभरती मुस्लिम पार्टी को ख़त्म करने पर उतारू रहती है। 

अब दूसरी बात ये है कि मुसलमानों की तरफ से अभी भी कुछ इलाकों को छोड़ मुस्लिम राजनीति को अमूमी तौर पर कबूल नहीं किया गया है। मुस्लिम राजनीती का सबसे बड़ा रोड़ा तो यही है। जिस दिन लोगों को ये समझ में आ जायेगा कि दूसरी सेकुलर पार्टियों में रहने और अपनी आज़ाद आवाज होने से उनको क्या फायदा है वो खुद ब खुद इसके लिए अपने कदम बढ़ाने शुरू कर देंगे। 

एक उदाहरण से समझिए। मुस्लिम राजनीति का गढ़ केरल में IUML का दबाव ही है कि वहां के मुसलमानों को शिक्षा में 8% और सरकारी जॉब में 10% आरक्षण का प्रावधान है। ऐसे ही AIMIM के गढ़ तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में मुसलमानों के लिए OBC कोटा के तहत 4% आरक्षण का प्रावधान है। 

असल बात ये है कि मुस्लिम समाज खास तौर पर उत्तर भारत में जिस दिन दबाव की राजनीति को करना सीख गया उसी दिन मुस्लिम राजनीति के मामले में एक क्रांति का उदय होगा। 

बाकि आपकी नजर में मुस्लिम राजनीति के वजूद में कौन बड़ी रुकावट है!

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