राजनीति में अगर कोई समुदाय ठीक ढंग से समीकरण नहीं बैठायेगा तो बहुत आसानी से राजनीतिक गुणा गणित से बाहर हो जायेगा। एक मिसाल के साथ इस बात को समझाता हूं। पश्चिम बंगाल का मालदा जिला जो देश के सबसे पिछड़े हुए जिलों में से एक कहा जाता है। मालदा की एक और भी पहचान है वह मुस्लिम बहुल जिला।
जब 2009 में परिसीमन हुआ तो इस जिले में एक लोकसभा सीट होती थी जिसको बांट कर दो लोकसभा सीटों में मालदा उत्तर और मालदा दक्षिण में तब्दील किया गया। उसके बाद से ही लगातार कांग्रेस के मौसम नूर अपने खानदानी राजनीतिक वर्चस्व की वजह से यहां से सांसद चुनी जाती रही है।
मगर एक बड़ा उलटफेर लोकसभा 2019 के चुनाव में हुआ जब यहां से भाजपा प्रत्याशी खगेन मुर्मू (5,09,524 वोट) ने मौसम नूर (425,236 वोट) को 84,288 (6.2%) मार्जिन से हरा दिया। खास बात यह रही कि इस बार मौसम नूर ने कांग्रेस का साथ छोड़कर टीएमसी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा था और दूसरे नंबर पर रही। अगर बात की जाए कांग्रेस की तो कांग्रेस के ईशा खान चौधरी 305,270 वोट के साथ तीसरे नंबर पर रहे।
कुल मिलाकर बात यह हुई 84,288 (6.2%) वोटों से यहां पर भाजपा उम्मीदवार चुनाव जीत गए। ये चुनावी नतीजे इसलिए भी आश्चर्यजनक थे क्यूंकि माना जाता है कि इस लोकसभा सीट में मुस्लिम मतदाता की गिनती 50% से ज्यादा है। इसके अलावा इस लोकसभा के अंतर्गत दो विधानसभा दलित आबादी के लिए और एक विधानसभा सीट आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है।
अब यहां पर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल ये है कि आखिर एक 50% से भी ज्यादा मुस्लिम मतदाता वाली लोकसभा सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव कैसे हार गया। दूसरी बात शायद आप लोग को भी लग रहा होगा की वोटो के बंटवारे ने मुसलमान उम्मीदवार का यहां से चुनावी मैदान में पहली बार शिकस्त देने का काम किया।
कुछ हद तक यह बात सही भी है। अगर इस इलाके की डेमोग्राफी की बात करो तो तकरीबन 8 लाख के आसपास मुस्लिम मतदाता है। इसके अलावा माना जाता है कि यहां पर डेढ़ लाख मंडल मतदाता भी रहते हैं। 85000 के आसपास दास और 72000 के पास सरकार समुदाय के लोग इस लोकसभा सीट का हिस्सा हैं। इसके अलावा राय और शाह की भी ठीक-ठाक गिनती रहती है।
अगर इसको आप और गहराई से देखेंगे तो आपको समझ में आएगा कि इस सीट पर वोटो का सीधी तरीके से ध्रुवीकरण हुआ है। खास तौर पर दलित और आदिवासी आबादी तृणमूल या कांग्रेस को छोड़कर सीधे तरीके से भाजपा के साथ चली गई। जिसका एक अंदाजा 2021 के विधानसभा चुनाव में हुआ जिसमें दो दलित आरक्षित सीटें गजोल, मालदा और एक आदिवासी आरक्षित सीट हबीबपुर आसानी से बीजेपी जीत जाती है।
अब यहां पर लोग सीधा पूछते है आखिर लोकसभा 2024 में हमें करने का क्या काम है?
तो आपको सीधे तौर पर समझना होगा कि वोटों के इस सीधे बंटवारे को रोकना होगा जो सीधे तौर पर आपकी हार की वजह बना था। दूसरी बात की केवल वोट बंटवारे को रोकने से काम खत्म नहीं होगा बल्कि एक पूरी दलित और आदिवासी आबादी तृणमूल और कांग्रेस को छोड़कर सीधे तौर पर भाजपा की तरफ चले गए हैं उनको दुबारा से सेकुलर पार्टियों से जोड़ना होगा वर्ना ध्रुवीकरण की राजनीति में हमेशा नतीजे ख़राब ही हासिल होते है।